Thursday, May 1, 2014

हरि चाचा और वो शाम जो पूरी जिंदगी मुझे नहीं भूलेगी....आत्मा या परमात्मा... कौन जाने, क्या सच है।

इम्तेहान खत्म होने वाले थे, और हर साल की तरह इस बार भी मुझे गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार था। गर्मी की छुट्टियां हमेशा मेरे लिए खास होती थीं, क्योंकि गर्मी की छुट्टियों में हम हमेशा गांव जाते थे। गांव मुझे बहुत पसंद था। क्योंकि वहां शहर की तरह छोटा नहीं बल्कि बड़ा मकान था। मकान क्या वो हमारी पुरानी हवेली थी। आज़ादी के पहले हम ज़मीदार हुआ करते थे। बड़ा घर, घर के आगे बड़ा बागीचा और दिन भर खेलने की आजादी।

ये ख्याल मन में आते ही मैने मम्मी से पूछा कि हम गांव कब जाएंगे, मम्मी ने बोला राहलु का इम्तेहान खत्म होने के दूसरे ही दिन। मैं खुश हो गया। राहुल मेरा बड़ा भाई था, और उसके इम्तेहान मुझसे दो दिन बाद खत्म होने वाला था। मैं चौथी कक्षा में था और राहुल छठी में था। 

इम्तेहान खत्म होने के बाद के दो दिन ऐसे कटे मानों दो बरस का इंतज़ार करना पड़ा। खैर, जैसे तैसे दो दिन बाद हम गांव पहुंचे। गांव जाने का बाद मुझे सबसे ज्यादा मन करता था भईया लाल जी के यहां जाने का। भईया लाल जी हमारे पारिवारिक मित्र थे। उनका भी गांव में एक बड़ा मकान था, लेकिन उनका मकान मुझे ज्यादा अच्छा इसलिए लगता था क्योंकि उनके यहां बगीचे में ढेरो झूले होते थे। और मेरा गांव वाला दोस्त बाबू लाल, छोटू और भोलू भी तो थे। हम चारों जब मिलजाते थे तो पूरा का पूरा दिन कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। उस दिन भी जैसे ही हम गांव पहुंचे मैंने तपाक से पापा से बोला कि, भईया लाल जी के यहां चलिए। पापा ने कहां अभी धूप काफी है, और सब लोग थके हुए हैं। शाम को चलेंगे। 

मैं उदास हो गया, लेकिन इस बात की खुशी भी थी कि शाम को बाबू लाल और छोटू के साथ खेलने को मिलेगा। मैंने खाना खाया और फिर आम के बगीचे में आम के पेड़ के पास खेलने चला गया। खेलते खेलते पास में पड़ा चारपाई पर कब गिरा और आंख लग गई पता ही नहीं चला। .. आंख खुली तो देखा शाम हो चली है। मैं तुरंत भागा घर पहुंच कर देखा तो कोई दिखाई नहीं दिया। छत, घर के पीछे वाला लॉन सब खाली पड़ा था। बाहर आया तो हमारे घर का नौकर बहादुर दिखा, मैने पूछा कि सब कहां गए। बहादुर ने कहा कि, अरे अप्पू बाबा आप इहां का करत हौ। सब लोगन तो भईया लाल के यहां गइलैं। मुझे बड़ा गुस्सा आया, मैने पूछा कि मुझे क्यों नहीं किसी ने जगाया। बहादुर ने बोला कि सबको लगा शायद मैं पहले ही पापा के साथ चला गया हूं। 

अब तो मैं गुस्से से ज्यादा परेशान हो गया। मन बेचैन हो उठा। मैने बहादुर को बोला कि चलो, मुझे भईया लाल के यहां छोड़ कर आओ। बहादुर ने बोला अभी बहुत काम है शाम को सब लोग आएंगे खाना बनाना है, थोड़ा देर रुकिए कोई और आता है तब चलता हूं। लेकिन मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। गुस्सा भी था कि, आखिर मुझे यूं छोड़ कर कैसे सब चले गए। और बाबू लाल और छोट, भोलू के साथ राहुल अकेल खेल रहा होगा। मेरा गुस्सा और बढ़ गया। अब मुझसे रहा नहीं गया, मैं अदर गया, जूता पहना और तुरंत निकल गया। 

भईया लाल का घर हमारे घर के सामने वाले जंगल के ठीक उस पार था। हमारे घर के ठीक सामने से एक सड़क निकलती थी, और उसके बाद जंगल शुरु हो जाता था। जंगल यूं तो बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन अंधेरा होने के बाद बड़ा डरावना ज़रुर हो जाता था। लोग जंगल की तरह तरह की कहानियां भी सुनाते थे। कोई कहता था कि इस जंगल में भूत रहते हैं, तो कोई कहता था कि इस जंगल में शेर और चीते भी रहते हैं जो बच्चों को खा जाते हैं। लेकिन इन सब कहानियों का डर भला मुझे कहां रोकने वाला था। मैने ना आव देखा और ताव... बस निकल पड़ा। 

रविवार का दिन था, शाम के कोई 5 बजे थे। सड़क पर कुछ खास भीड़ नहीं थी। सड़क पार कर मैं जंगल में पहुंच गया। मन में उन तमाम कहानियों का डर तो था ही लेकिन बाबू लाल और छोटू के साथ खेलने का अजब सा चाव भी था। वैसे उनके साथ खेलने से ज्यादा ईर्ष्या मेरे मन में इस बात की थी की राहुल अकेले उनके साथ खेल रहा होगा। बस इस ख्याल भर से मेरे कदम और तेज़ हो गए। मैं चलता जा रहा था। चलते चलते ऐसा लगा मानो शाम ढल रही है और अंधेरा बढ़ता जा रहा है। लेकिन दरअसल जंगल घना था, और यहां दिन में भी शाम जैसा ही लगता था। मैने किसी तरह खुद को हिम्मत देते हुए आगे बढ़ने लगा। मम्मी कहती थीं कि गाना गाने से डर कम हो जाता है। मैने भी गाना गाना शुरु किया। सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ने की वजह से सिर्फ देशभक्ति के गाने आते थे। और एक नया गाना उन दिनों सीखा था, नन्हा मुन्हा राही हूं, देश का सिपाही हूं। बस मैने ये गाना, गाना शुरु किया और आगे बढ़ने लगा। लेकिन फिर धीरे धीरे जैसे जैसे अंधेरा बढ़ने लगा और रास्ता खत्म नहीं हो रहा था तो ये गाने वाला फॉर्मूला काम करना बंद कर दिया। अब धीरे धीरे मेरी सारी हेकड़ी उतरने लगी। कुछ कदम और आगे बढ़ा तो सियार के रोने की आवाज़ सुनाई दी। बस इसके बाद तो मेरी उतरी हुई शक्ल रोनी सूरत में बदल गई। मुझे समझ में आ चुका था कि मैं जंगल में रास्ता भटक चुका था। इसके बाद बस मैं रोने ही वाला था कि अचानक पीछे से किसी ने आवाज़ दी... अप्पू.... मैं चौंक गया कि इस जंगल में कौन मुझे बुला रहा है। पीछे पलट के देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई मैं और तेज़ चलने लगा और आंखोें से टप टप आंसू गिरने लगे। लेकिन तभी पीछे से एक साया मेरे आगे आया और बोला कि तुम जंगल में अकेले क्या कर रहे हो। इस साए की सूरत देखते ही आंसू एकदम से रुक गए। मैं देखते ही पहचान गया... अरे ये तो हरि चाचा हैं। मैने उनको देख कर आंसू रोकने की कोशिश की तो उन्होने कहा कि रोओ मत ये बताओ क्या हुआ। मैने उनका सारी कहानी सुना दी.. वो हंसने लगे। उनको हंसते देख मेरी भी जान में जान आई। जीभ होठों पर गई तो पता चला कि होंठ सूख गए थे. बार बार जीभ होठों पर फिराने लगा। हरि चाचा ने कहा, कोई बात नहीं रोते नहीं। चलो मैं तुमको भईया लाल के यहां ले चलता हूं और फिर आगे से कभी अकेले जंगल में नहीं आना। मैं खुश हो गया। फिर क्या हरि चाचा आगे आगे और मैं पीछे पीछे। रास्त पर उछलते कूदते मैं उनके साथ चलने लगा। कभी पूछता कि ये कौन सा पेड़ है वो कौन सा जानवर है... ये करते करते कब रास्ता बीता पता ही नहीं चला। 

हरि चाचा रुके और बोले कि वो सामने भईया लाल का घर है जाओ और फिर कभी जंगल में अकेले मत आना। मैने उनको थैंक्यू बोला और दौड़ता हुआ आगे बढ़ गया। लेकिन दो कदम जा कर फिर रुका और पलट के हरि चाचा की तरफ देखा तो वो जंगल में वापस जा रहे थे, मैने उनको पूछा कि चाचा आप भी चलो ना सब लोग बनारस से आए हैं। उन्होने कहा नहीं, तुम जाओ मुझे कुछ काम है। मुझे बड़ा अजीब लगा लेकिन फिर सोचा मुझे क्या करना है, क्योंकि अब मुझे खुशी इस बात की थी कि अब राहुल अकेले बाबू लाल और छोटू के साथ नहीं खेल पाएगा। मैं जैसे ही अहाते में पहुंचा तो देखा सब लोग बाहर कुर्सी लगाकर बैठे थे। मम्मी और घर की बाकी औरतें अंदर बरामदे में बैठी हुई बातें कर रही थी। मुझे बड़ा गुस्सा आया कि देखो मेरे बारे में किसी को याद ही नहीं है किसी को मेरी फिक्र ही नहीं है। जैसे ही मैं अंदर पहुंचा तो पापा की निगाह मुझ पर पड़ी.. पापा ने कहा कि तुम कहां थे। मैने गुस्से में कहा कि आप लोग हमको घर पर ही छोड़ आए थे। पापा ने तुरंत पूछा कि तुम आए कैसे ..... बहादुर लाया है? मैंने वहां मेज पर रखी नाश्ते के प्लेट से एक बिस्किट उठा कर मुंह में डालते हुए कहा कि नहीं मैं खुद आया और आधे रास्ते बाद जंगल में हरि चाचा मिल गए। वही छोड़ कर गए हैं।  
जैसे ही मैने कहा कि हरि चाचा मुझे छोड़ कर गए तुरंत सब मेरी तरफ देखने लगे, मम्मी भी अब तक बरामदे से बाहर आ चुकी थीं। हरि चाचा का नाम सुनते ही मम्मी दौड़ते हुए मेरी तरफ आईं और मुझे गले से लगा लिया। और घर के अंदर ले गईं। 

मुझे नहीं पता कि हरि चाचा का नाम सुन कर सबको क्या हुआ और क्या बातें उसके बाद हुई। लेकिन दूसरे ही दिन हम लोग गांव से बनारस वापस आ गए। 

मुझे नहीं पता चला कि आखिर हुई क्या। गर्मी की छुट्टी खत्म हो चुकी थी। मैं कक्षा पांच में पहुंच चुका था। एक सुबह तैयार होते हुए मैने घर पर काम करने वाली बाई, जिनको हम लोग प्यार से नानी कहते थे उनको पूछा कि आप हरि चाचा को जानती हो... तब उनसे मुझे पता चला कि ..............................

हरि चाचा को मरे हुए 2 साल हो गए हैं। 


इस घटना को आज भी याद करते हुए सिहरन सी दौड़ जाती है। आज फिर ये वाकया याद आया तो आपके साथ साझा कर रहा हूं। यकीन मानिए आत्माएं हमारे साथ ही होती हैं, हमारे आस पास...हर तरफ. वो हमें देखतीं हैं, हमें महसूस करती हैं और हमसे बातें भी करना चाहती हैं। एक बार आंखे बंद कर किसी से बात करने की कोशिश तो करिए।....... 


बाकी अगली कहानी में...